Natasha

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राजा की रानी

कुशारी-गृहिणी ने जिस दु:ख का वर्णन किया, उसका कुछ सार यह है कि घर में खाने-पहरने का काफी आराम होने पर भी उनके लिए घर-गृहस्थी ही सिर्फ विषतुल्य हो गयी हो सो बात नहीं, बल्कि दुनिया के आगे उनके लिए मुँह दिखाना भी दूभर हो गया है। और इन सब दु:खों की जड़ है उनकी एकमात्र देवरानी सुनन्दा। यद्यपि उनके देवर युदनाथ न्यायरत्न ने भी उनके साथ कम शत्रुता नहीं की है परन्तु असल मुकदमा है उसी देवरानी के विरुद्ध और वह विद्रोही सुनन्दा और उसका पति जब कि फिलहाल हमारी ही रिआया हैं तब, हमें जिस तरह बने, उन्हें काबू में लाना ही पड़ेगा। संक्षेप में बात इस तरह है- उनके ससुर और सास का जब स्वर्गवास हुआ था, तब वे इस घर की बहू थीं। यदुनाथ तब सिर्फ छै-सात साल का लड़का था। उस लड़के को पाल-पोसकर बड़ा करने का भार उन्हीं पर और उस दिन तक वे उस भार को बराबर सँभालती आई हैं। पैतृक सम्पत्ति में था सिर्फ एक मिट्टी का घर, दो-तीन बीघा धर्मादे की जमीन और कुछ जजमानों के घर। सिर्फ इसी पर निर्भर रहके उनके पति को संसार समुद्र में तैरना पड़ा है। आज यह बढ़वारी और सुख-स्वच्छन्दता दिख रही है, यह सब कुछ उनके पति के हाथ की ही कमाई का फल है। देवरजी जरा भी किसी तरह का सहारा नहीं देते हैं, और न उनसे किसी तरह के सहारे के लिए कभी प्रार्थना ही कि जाती है।

मैंने कहा, “अब शायद वे बहुत ज्यादा का दावा करते हैं?”

कुशारी-गृहिणी ने गरदन हिलाते हुए कहा, “दावा कैसे बेटा, यह सब कुछ उसी का तो है। सब कुछ वही तो लेता, अगर सुनन्दा बीच में पड़कर मेरी सोने की गृहस्थी मिट्टी में न मिला देती।”

मैं बात को ठीक से समझ न सका, मैंने आश्चर्य के साथ पूछा, “पर आपका यह लड़का...”

वे पहले कुछ समझ न सकीं, पीछे समझने पर बोलीं, “उस विजय की बात कह रहे हो? वह तो हमारा लड़का नहीं है बेटा, वह तो एक विद्यार्थी है। देवरजी के टोल में¹ पढ़ता था, अब भी वहीं पढ़ता है, सिर्फ रहता हमारे यहाँ है।” यों कहकर वे विजय के सम्बन्ध में हमारी अज्ञानता को दूर करती हुई कहने लगीं, “कितने कष्ट से मैंने देवर को पाल-पोसकर आदमी बनाया सो एक सिर्फ भगवान ही जानते हैं, और मुहल्ले के लोग भी कुछ-कुछ जानते हैं। पर खुद वह आज सब कुछ भूल गया, सिर्फ हम लोग नहीं भूल सके हैं।” इतना कहकर फिर उन्होंने ऑंखों के किनारे पोंछते हुए कहा, “पर उन सब बातों को जाने दो बेटा, बहुत-सी बातें हैं। मैंने देवर का जनेऊ करवाया, इन्होंने पढ़ने के लिए उसे मिहिरपुर के शिबू तर्कालंकार के टोल में भिजवाया। बेटा, लड़के को छोड़कर रहा नहीं गया तो मैं खुद जाकर कितने दिन मिहिरपुर रह आई, सो भी आज उसे याद नहीं आता। जाने दो, इस तरह कितने वर्ष बीत गये, कोई ठीक है भला। देवर की पढ़ाई पूरी हुई, वे उसे गृहस्थ बनाने के लिए लड़की की तलाश में घूमा किये; इतने में, न कुछ कहना न सुनना, अचानक एक दिन शिबू तर्कालंकार की लड़की सुनन्दा से ब्याह करके आप बहू घर ले आया। मुझसे न कहा तो न सही, पर अपने भइया तक से कोई राय न ली।”

मैंने धीरे से पूछा, “राय न लेने का क्या कोई खास कारण था?”

गृहिणी ने कहा, “था क्यों नहीं। वे हमारे ठीक बराबरी के न थे, कुल, शील और सम्मान में भी बहुत छोटे थे। इन्हें बहुत गुस्सा आया, दु:ख और लज्जा के मारे शायद महीने-भर तो किसी से बातचीत तक नहीं की; पर मैं गुस्सा नहीं हुई। सुनन्दा का मुँह देखकर मैं पहले से ही मानो पिघल-सी गयी। उस पर जब सुना कि उसकी माँ मर गयी और बाप उसे देवर के हाथ सौंपकर खुद सन्यासी होकर निकल गये हैं, तो उस नन्हीं-सी बहू को पाकर मुझे कितनी खुशी हुई सो मैं मुँह की बातों से नहीं समझ सकती। पर वह किसी दिन इस तरह का बदला लेगी,

सो कौन जानता था।” इतना कहकर सहसा वे सुपुक-सुपुककर रोने लगीं। समझ गया कि वहीं पर व्यथा अत्यन्त तीव्र हो उठी है; मगर फिर भी चुप रहा। राजलक्ष्मी भी अब तक कुछ नहीं बोली थी; उसने धीरे से पूछा, “अब वे कहाँ रहते हैं?”

¹ पुराने ढंग की संस्कृत की घरेलू पाठशाला।

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